Friday, October 23, 2015

ज्ञान से मिटता है भेद-भाव

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आचार्य सुरक्षित गोस्वामी 

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके पण्डिताः समदर्शिनः।। 5/18 


ज्ञानी और विनम्र लोग विद्या और विनय के धनी ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चांडाल सभी को एक जैसी निगाह से देखते हैं। 

जैसे जूलर जूलरी के डिजाइन पर मोहित नहीं होता बल्कि उसमें सोने की क्वॉलिटी को देखता है, ठीक वैसे ही ज्ञानी इंसान शरीर नहीं बल्कि उसे धारण करने वाली आत्मा को देखता है। जैसे जूलरी को सोना या उसमें इस्तेमाल की गई बहुमूल्य धातु खास बनाती है, वैसे ही सभी प्राणियों का आधार आत्मा है। ज्ञानी के लिए महत्वपूर्ण यह नहीं है कि शरीर कौन-सा है, योनि कौन-सी है, अहम है कि सबके भीतर आत्मा एक ही है। इस बात को समझकर उस भाव में बने रहना ही ज्ञानयोग है। 

ज्ञानयोग भीतर पड़े भेदभाव को मिटा देता है, क्योंकि इंसान भेद-बुद्धि की वजह से ही सभी में भेद करता है। वह अपने बच्चों तक में भेद करता है। यह भेद करने वाली बुद्धि इंसान के भीतर जीवनभर कायम रहती है। लेकिन जब साधक ज्ञान के रास्ते पर आगे बढ़ता है, तब उसमें समता का भाव पैदा होने लगता है। यही समता का भाव उसमें अद्वैत (सब एक हैं) का भाव पैदा करता है, जिससे मेरा-तेरा, अमीर-गरीब, महिला-पुरुष, इन्सान-जानवर आदि सबके लिए एक जैसा भाव जाता है। इसलिए जो अद्वैत भाव में टिके रहते हैं, उनके लिए पढ़े-लिखे ब्राह्मण और गाय, हाथी, कुत्ते और चांडाल में कोई भेद नहीं होता।

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